मम्मी-पापा, क्या मेरे बचपन के कुछ पल आज भी आपके सामने से गुज़र जाते हैं ?
क्या कुछ पल संजो कर रख पाए हो आप क्यूंकि भागती-दौड़ती ज़िन्दगी अक्सर ये मौका हर किसी को नहीं देती. ज़िन्दगी अपने हर दौर में अनगिनत लम्हे बुनती हैं और नए पल अक्सर पुराने लम्हो की जगह ले ही लेते हैं.
मेरे बचपन को तो गुज़रे हुए 30 साल हो गए, क्या पता आपकी इन 30 साल की ज़िन्दगी ने मेरे बचपन के लम्हो को कितनी जगह दी होगी.
आजकल मैं अपने बेटे के बचपन से रूबरू हूँ जो कि मेरी ज़िन्दगी का एक दिलचस्प दौर हैं.
पापा, क्या आप उस एहसास को शब्दों में पिरो सकते हो जब आपने मुझे पहली बार अपने बाज़ुओं में लिया था. क्या आपकी भी मज़बूत बाजुएँ काँप रही थी उस वक़्त.
क्या आप भी मेरी भटकती हुयी नज़रो के थम जाने की आस लगाए बैठे थे. फिर क्या आपको याद हैं जब मैंने आपको पहली बार देखा था.
क्या उस वक़्त आपको एहसास था कि मेरी निगाहें अक्सर आप दोनों को ही ढूंढा करती थी?
और मम्मी, क्या मैं भी बे-हिसाब हस्ता था आपकी हर अदा पर. क्या आपके करीब आने पर मैं भी आपकी नाक और कान खींच देता था.
कैसा लगा था आपको जब मैंने पहली बार पलटी मारी थी?
क्या याद हैं वो दिन जब मैंने पहली बार रेंग कर अपने कमरे की देहलीज पार की थी?
क्या आपको मेरी बढ़ती हुयी रफ़्तार याद हैं जब मैंने एकाएक रेंगते हुए घुटनो का सहारा लिया था?
क्या आपको वो पलंग याद हैं जिसके सहारे मैं पहली बार अपने पैरो पर खड़ा हुआ था?
क्या आप भी छुप-छुपकर देखा करते थे कि मैं किन उधेड़ बुन में लगा रहता थ?
क्या आपको मेरे खिलौने याद हैं? वो लकड़ी की गुड़िया याद हैं, पता हैं वो मेरी हमराज़ थी.
क्या आप भी खीज जाते थे जब मैं आपकी गोद में आने की ज़िद्द करता था? शायद आपको अंदाजा न हो पर उससे ज़्यादा सुकून मुझे कहीं नहीं मिलता था.
कैसे आप अपने गुस्से को काबू कर पाते थे जब मैं ज़िद्द और रोने का सहारा लिया करता था?
क्या आपकी भी आँखें भर आयी थी जब मैंने पहली बार मममम और पापा बोला था? ये शब्द हमारे बीच के संवाद की नीव जैसे थे.
क्या आप भी चौंक जाते थे जब मैं भी आपके कहे हुए शब्दों को जैसे के तैसे ही दोहरा दिया करता था.
पापा, क्या मैं भी आपके ऑफिस जाने पर बहुत रोता था और क्या स्कूटर के एक फेरे खाये बगैर आपका ऑफिस जाना नामुमकिन था?
क्या आपको याद हैं कि आपके स्कूटर के हॉर्न से ही मैं कितना रोमांचित हो जाता था?
क्या ऑफिस से लौटने पर मुझे देखकर आपकी थकान उतर जाती थी?
और क्या मैं भी रविवार को सुबह 5 बजे उठकर आपकी नींद उड़ा दिया करता था?
इन पलों को आजकल मैं और मेरे कुछ दोस्त जी रहे हैं. ऐसा लग रहा हैं जैसे की मेरे बेटे के बचपन से मैं खुद के बचपन को और अपने माँ-बाप की जवानी को दोबारा जी रहा हूँ.
क्या कुछ पल संजो कर रख पाए हो आप क्यूंकि भागती-दौड़ती ज़िन्दगी अक्सर ये मौका हर किसी को नहीं देती. ज़िन्दगी अपने हर दौर में अनगिनत लम्हे बुनती हैं और नए पल अक्सर पुराने लम्हो की जगह ले ही लेते हैं.
मेरे बचपन को तो गुज़रे हुए 30 साल हो गए, क्या पता आपकी इन 30 साल की ज़िन्दगी ने मेरे बचपन के लम्हो को कितनी जगह दी होगी.
आजकल मैं अपने बेटे के बचपन से रूबरू हूँ जो कि मेरी ज़िन्दगी का एक दिलचस्प दौर हैं.
पापा, क्या आप उस एहसास को शब्दों में पिरो सकते हो जब आपने मुझे पहली बार अपने बाज़ुओं में लिया था. क्या आपकी भी मज़बूत बाजुएँ काँप रही थी उस वक़्त.
क्या आप भी मेरी भटकती हुयी नज़रो के थम जाने की आस लगाए बैठे थे. फिर क्या आपको याद हैं जब मैंने आपको पहली बार देखा था.
क्या उस वक़्त आपको एहसास था कि मेरी निगाहें अक्सर आप दोनों को ही ढूंढा करती थी?
और मम्मी, क्या मैं भी बे-हिसाब हस्ता था आपकी हर अदा पर. क्या आपके करीब आने पर मैं भी आपकी नाक और कान खींच देता था.
कैसा लगा था आपको जब मैंने पहली बार पलटी मारी थी?
क्या याद हैं वो दिन जब मैंने पहली बार रेंग कर अपने कमरे की देहलीज पार की थी?
क्या आपको मेरी बढ़ती हुयी रफ़्तार याद हैं जब मैंने एकाएक रेंगते हुए घुटनो का सहारा लिया था?
क्या आपको वो पलंग याद हैं जिसके सहारे मैं पहली बार अपने पैरो पर खड़ा हुआ था?
क्या आप भी छुप-छुपकर देखा करते थे कि मैं किन उधेड़ बुन में लगा रहता थ?
क्या आपको मेरे खिलौने याद हैं? वो लकड़ी की गुड़िया याद हैं, पता हैं वो मेरी हमराज़ थी.
क्या आप भी खीज जाते थे जब मैं आपकी गोद में आने की ज़िद्द करता था? शायद आपको अंदाजा न हो पर उससे ज़्यादा सुकून मुझे कहीं नहीं मिलता था.
कैसे आप अपने गुस्से को काबू कर पाते थे जब मैं ज़िद्द और रोने का सहारा लिया करता था?
क्या आपकी भी आँखें भर आयी थी जब मैंने पहली बार मममम और पापा बोला था? ये शब्द हमारे बीच के संवाद की नीव जैसे थे.
क्या आप भी चौंक जाते थे जब मैं भी आपके कहे हुए शब्दों को जैसे के तैसे ही दोहरा दिया करता था.
पापा, क्या मैं भी आपके ऑफिस जाने पर बहुत रोता था और क्या स्कूटर के एक फेरे खाये बगैर आपका ऑफिस जाना नामुमकिन था?
क्या आपको याद हैं कि आपके स्कूटर के हॉर्न से ही मैं कितना रोमांचित हो जाता था?
क्या ऑफिस से लौटने पर मुझे देखकर आपकी थकान उतर जाती थी?
और क्या मैं भी रविवार को सुबह 5 बजे उठकर आपकी नींद उड़ा दिया करता था?
इन पलों को आजकल मैं और मेरे कुछ दोस्त जी रहे हैं. ऐसा लग रहा हैं जैसे की मेरे बेटे के बचपन से मैं खुद के बचपन को और अपने माँ-बाप की जवानी को दोबारा जी रहा हूँ.
Nice realization brother..
ReplyDeletethanks for reading bro :-)
DeleteAs always well expressed
ReplyDeletebadhia tha.. maja aa gaya
ReplyDeletethanks for reading bhai.
Deleteलिखने के लिए बहुत सारी चीजें हैं, पर लेखक कौन सा विषय चुनता है। ये उसका जीवन के प्रति नज़रिया दिखाता है।
ReplyDeletesahi keh rahe ho avinash. thanks for reading.
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