Sunday, December 27, 2015

वो तकती निगाहें

बात दरहसल 2005  की हैं जब हम पहली बार एक दूसरे से रूबरू हुए थे. दिल्ली की सर्दियाँ अपने चरम पर थी. उस भागती हुई दिल्ली की रफ़्तार सुबह के वक़्त कुछ ख़ासा तेज होती थी. ऐसा लगता था मानो सब शहर छोड़ कर भाग रहे हो. वो भागती हुई गाड़िया शहर की रूहानी सुबह को तहस-नहस कर रही थी. उन सर्द हवाओं की भीनी-भीनी खुशबू धुएं के कारण महकना बंद हो गयी थी. सफ़ेद कोहरे की चादर में धुएं ने पूरी तरह सेंध मार ली थी. फिर भी शहर की आबो हवा में एक रोमांच तो था ही. दिल्ली दिल वालो की जो हैं

शायद यही वजह थी की जब मैंने उन्हें पहली बार देखा, तो मैं उन्हें अपना दिल दे बैठा. वो वसंत विहार बस स्टैंड पर खड़ी थी. इतनी भीड़ में हमारी नज़रों का मिलना तो नामुमकिन था और सच बताऊ तो उन्होंने कोशिश भी कहा की थी ! उनके लिए तो मैं अब भी एक भीड़ का हिस्सा ही था. एक जिज्ञासा तो हुई की उनसे कहूं कि क्या आप अपनी नज़रो को थोड़ा तकलीफ देंगी, जिससे कि वो हमसे मिल सके. पर इतने में उनकी बस आ गयी. मैंने आव देखा ना ताव उसी बस में चढ़ गया. उस खचाखच भरी बस में लोगों को अपने स्टैंड के आने का इंतज़ार था. लगता था की वो भीड़ नहीं रोबोट की फ़ौज हैं. पर मुझे तो इंतज़ार था हमारी नज़रों के मिलने का. 

खैर कुछ दिन यह सिलसिला यूहीं चलता रहा और एक दिन हमने उनसे कह ही दिया कि हमे आपसे मोहब्बत हैं. सुनने में थोड़ा फ़िल्मी तो लगता हैं पर इससे बहतर मुझे कुछ सूझा नहीं . मुझे इतनी अंग्रेजी तो आती थी कि 'I LOVE YOU' कह सकूं पर यह तो सब कहते हैं ना ! पहले तो उन्होंने अपनी निगाहो को हम पर टिकाया, फिर मुस्कुराई और बिना कुछ बोले चली गयी. फिर कुछ दूर जाकर पीछे मुड़ी, मुस्कुराई और बस में बैठ गयी. मेरे पैर तो जैसे जाम हो गए थे. उस दिन मैं बस में चढ़ ही नहीं सका. दौड़ती भागती भीड़ के बीच एक जगह पर खड़ा हुआ बस हिचकोले खा रहा था. वो भी किसी फिल्म के एक दृश्य (Scene) से कहा काम था !

हम भी अब दिल्ली के दिलवाले थे. यह तो सच था कि वो दिलवाली मुझे उस भीड़ में ही मिली थी अब जब भी हम साथ होते तो भीड़ जैसे अपनी निगाहें हम दोनों पर तका देती. मानो पूछ रही हो तुम क्या कर रहे हो हमारी दिलवाली के साथ. ना जाने क्या हो गया था उस भागती भीड़ को ! शहर के किसी भी कोने में वो निगाहें हमारा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी. ना जाने क्या दिलचस्पी रही होगी उस भीड़ को हमे हर वक़्त ताकते रहने में. इस बात का अंदाजा हमे पहले क्यों नहीं हुआ. अब तो हम दोनों की निगाहें भी इसी में  बात में जुट गयी कि कौन कहा से देख रहा हैं. वो निगाहें एकाएक और चौकन्नी हो जाती थी जब मैं उनके हाथ को थाम लेता था. 

एक दिन सोचा कि इस भीड़ को चकमा देकर कहीं चलते हैं. पर जाते कहा इस 1 करोड की आबादी वाले शहर में. हर तरफ तो निगाहें टिकी हैं. क्या जरुरत हैं इस शहर को CCTV कैमरों की ! हर शाख पर कोई ताक रहा हैं.  फिर वसंत विहार पर हम दोनों का इंतज़ार करती उस भीड़ को ठेंगा दिखाकर मैंने ऑटो-रिक्शा वाले को रोका.
मैंने पूछा भैया नॉएडा चलोगे ? उसने कहा दिल्ली के ऑटो नॉएडा नहीं जाते. मैंने बचकाने अंदाज़ में कहा कि अरे दिल्ली में कहीं दूर ले चलो यार. वह मुस्कुराते हुए बोला बैठ जाओ, मैं समझ गया आपको कहा जाना हैं. पर हम दोनों नहीं समझ पाये की वो क्या समझा हैं. हम दोनों बैठे, एक दूसरे का हाथ थामा ही था कि रिक्शा चालाक ने अपनी निगाहें हम पर टिका ली. आसान था उसके लिए सिर्फ अपने Front Mirror को adjust ही तो करना था. हमने 50 रुपये दिए और उतर गए. 
अब कहा जाए ? मैं उसके घर जा नहीं सकता और वो मेरे घर आ नहीं सकती। घर वालो को पड़ोसियों की तकती निगाहों को जवाब जो देना था वो कौन थी/था जो आपके घर आया/यी था/थी. जवाब न देने की सूरत में एक सीधी सच्ची मोहब्बत को शक के दायरे में ला दिया जाता. क्यूंकि एक हमउम्र लड़की या तो बहिन होगी या फिर शादी के बाद बीवी. समाज ने उस रिश्ते को कोई नाम भी तो नहीं दिया हुआ हैं, यही शक की बुनियाद हैं.
सोचा की चलो किसी गार्डन में चले. वहा जाकर तो ऐसा लगा कि लिखा हो 'Sit at your Risk ' क्यूंकि या तो कुछ देर में हमे वहाँ आकर पुलिस पीट देगी या फिर कोई सी सेना आकर पहले पीटेगी, फिर राखी बँधवाएगी या शुद्दिकरण कर देगी हमारा. वीडियो बनाकर सारे दिन न्यूज़ चैनलों की खबर बनते रहेंगे वो अलग से. 
होटल में कमरे लेने की सोचना भी पाप था. फिर ख़याल आया की क्यों न राम गोपाल वर्मा की कोई फिल्म देखने चले. वहा कोई होगा भी नहीं और सुकून भी पूरा रहेगा. ऐसा ही हुआ हमारे जैसे कुछ युगलों (Couples) को छोड़कर वहा कोई नहीं था. और वहाँ मौजूद किसी की मंशा फिल्म देखने की थी भी नहीं. वह उस अँधेरे में कम से कम ये तो यकीन कर सकते थे की कोई तकती निगाहें यहाँ नहीं होंगी.