Friday, May 25, 2018

शुक्ला मैडम

हमारी ज़िन्दगी के रंगमंच में बहुत से किरदार आते हैं और उनमे से कुछ हमारे दिल में अपनी जगह हमेशा के लिए बना लेते हैं, फिर चाहे रंगमंच में उनकी भूमिका मामूली से वक़्त की ही क्यों न हो. एक ऐसा ही किरदार थी शुक्ला मैडम जिनसे मेरी पहली मुलाकात 1995 में हुई. हुआ यूं कि पापा का ट्रांसफर हो गया था भिवाड़ी जहाँ शुक्ला मैडम अपने पति और बच्चो के साथ एक अरसे से वहाँ रह रही थी. भिवाड़ी देश की राजधानी दिल्ली से 80 किलोमीटर दूर बसा एक औद्योगिक नगर हैं. उसकी औद्योगिकता का अंदाजा उसकी आबो हवा में बसे धुएं से साफ़ लगाया जा सकता था.
ट्रांसफर के चलते पूरा परिवार जयपुर से अपना बोरिया बिस्तर समेटकर भिवाड़ी की ओर चल चल पड़ा था. पीछे रह गया था वो सरकारी खाली घर, हमारे प्यारे पडोसी जो गले लग लगकर हमे विदा कर रहे थे और मेरे कुछ ख़ास दोस्त जिनसे आज तक मैं दोबारा नहीं मिल पाया. खैर हम भिवाड़ी पहुंचे. वहाँ का सरकारी घर जैसे हमारी राह ही देख रहा हो. दिखने में वो बिलकुल वैसा ही था जैसा हम एक जयपुर में छोड़ आये थे. ऐसे सरकारी मकान अक्सर कालोनी में होते थे जहां उसके जैसे मकान और भी होते थे. फर्क सिर्फ इतना था कि बड़े अफसर का मकान बड़ा और मज़दूर वर्ग के मकान छोटे, फिर चाहे उनके परिवार की संख्या कितनी भी हो. मेरी ख्वाइश बस इतनी थी कि वह नगर हमे जल्दी ही अपना बना ले जैसे फैक्टरियों से निकलने वाली गंध और धुएं को उसने अपना बना रखा था.  ख्वाइश थी कि हम भी जल्दी ही धुएं की तरह आस्मां में चौड़े होकर कह पाते कि हम भी यहाँ से ही हैं. नयी जगह दिलचस्पी पैदा करती हैं, पर खुद से दिल भी आसानी से लगाने नहीं देती. पर कोशिश से ये मुमकिन हैं. रोज़ शाम मैं अलग-अलग बच्चो के झुण्ड के पास जाकर खड़ा हो जाता था. अफसरों और मज़दूरों के बच्चे अलग-अलग खेलते थे. खेल भी काफी अलग थे उनके. कुछ दिनों ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहा और किसी ने मुझे शामिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उन दिनों पुराने दोस्त बहुत याद आते थे. मैंने अपने पक्के दोस्त अमित को पत्र लिखा और जयपुर के लिए पोस्ट कर दिया. उस पत्र में मेरे दिल के सारे जज़्बात शामिल थे. पता नहीं वो पत्र अमित को मिला भी कि नहीं, उसका जवाब अभी तक नहीं आया.
कुछ दिन बीते. पापा ने मेरा दाखिला कराया नगर के एक प्राइवेट स्कूल में. स्कूल का माध्यम हिंदी था. स्कूल के पहले ही दिन मेरी मुलाकात शुक्ला मैडम से हुई. वो मेरी क्लास टीचर थी. संस्कृत पढ़ाती थी. संस्कृत क्लास 6 में ही स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होती हैं. संस्कृत के बारे में मैंने भी सुना था कि एक भाषा हैं जिसमे बहुत सी पौराणिक कथाएं और ग्रन्थ लिखे गए हैं. कभी भी संस्कृत में किसी को बोलते नहीं सुना था. नया स्कूल और नए लोगो को देखकर मैं बहुत खुश था. ख़ुशी इस बात की भी थी कि मेरी उम्र के 45 बच्चे पूरे दिन मेरे साथ रहेंगे, तो दोस्त तो मेरे यूँही बन जायेंगे. पहले दिन शुक्ला मैडम मुस्कुराते हुए क्लास में घुसी और सारे बच्चे अपनी जगहों से खड़े होकर एक सुर में बोले "गुड़ मॉर्निंग मैडम". ये तो ठीक बिलकुल वैसा ही था जो इससे पहले मेरे अंग्रेजी स्कूल में होता था. क्या हिंदी माध्यम के स्कूल भी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं. पर क्यों?
मैं इस अंतर्द्वंद में ही था कि शुक्ला मैडम ने मेरी तरफ देखकर कहा "बैठ जाओ बच्चे." आगे बोलते हुए उन्होंने कहा कि "अब सब बच्चे अपना परिचय देंगे. अपना नाम, पापा का नाम और वो क्या करते हैं. ये बताना हैं" वो हमारा कम और हमारे पापा का परिचय ज्यादा लग रहा था. मेरे परिचय को सुनकर शुक्ला मैडम की आंखों में एकाएक चमक आ गयी. वैसे तो मैडम चश्मा लगाती थी. चश्मा भी ऐसा की सूरज की थोड़ी सी रौशनी से ही वो भूरा हो जाता था. ऐसे में उनकी आँखों को देख पाना नामुमकिन था. पर परिचय के दौरान उन्होंने चश्मा निकालकर सामने वाली मेज पर रख दिया था. जिससे उनकी आंखों की चमक को मह्सूस कर पाना आसान था. मैं उनके भाव को समझ नहीं पा रहा था. शायद उन्हे गुस्सा होना चाहिए था क्यूंकि परिचय के दौरान मैंने काफी अंग्रेजी का प्रयोग किया था. मुझे नहीं पता था कि इलेक्ट्रिसिटी को बिजली कहते हैं. पर अंग्रेजी से तो उनको कोई समस्या नहीं होनी चाहिए थी क्यूंकि अभी कुछ वक़्त पहले ही हम सबने एक सुर में बहुत सारी अंग्रेजी बोली थी. अंग्रेजी भाषा को वैसे भी हमारे देश में अव्वल दर्ज़े की इज़्ज़त प्राप्त हैं. तो क्या मैडम मेरी अंग्रेजी भाषा के बहुत ज्यादा प्रयोग से प्रभावित थी!
एकाएक मैडम ने मेरे सोच के बवंडर को शांत करते हुआ कहा कि "तुम मुझसे लंच टाइम में स्टाफ रूम में मिलना" ये सुनकर सभी बच्चे भी मेरी तरह कयास लगाने लगे कि आखिर हुआ क्या हैं. जैसे-तैसे मैंने 2 घंटे और निकाले, फिर लंच टाइम होते ही सीधे स्टाफ रूम में पहुंच गया. वहाँ शुक्ला मैडम नहीं थी. वहाँ बैठी और अध्यापिकाओं ने मुझे देखा और कहा" यहाँ क्या कर रहा हैं, चल बहार जा." ऐसी कठोर भाषा मैंने पहले नहीं सुनी थी. तभी शुक्ला मैडम आ गयी.
उन्होंने फिर पूछा कि "तुम्हारे पापा इलेक्ट्रिसिटी डिपार्टमेंट में काम करते हैं?"
मैंने डरते हुए कहा कि" मैडम, आई ऍम सॉरी, मतलब माफ़ कर दीजिये मुझे इलेक्ट्रिसिटी को हिंदी में क्या कहते हैं, नहीं पता. मैं आज ही पापा से पूछ लूंगा। मैडम आई ऍम सॉरी"
मेरे माथे के पसीने और कापते हुए शब्दों से मैडम मेरे डर को भांप गयी और बोली"अरे बच्चे नहीं, कोई बात नहीं. मैं तुमसे नाराज़ थोड़े ही हूँ. क्या तुम मेरा एक काम करोगे?"
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था क्यूंकि अंग्रेजी स्कूल में एक बार मैंने क्लास में हिंदी बोल दी थी. तब मैडम ने मुझे सजा के तौर पर मेज पर आधा घंटे खड़े रहने को कहा और स्कूल डायरी में नोट डाल दिया. मेरे क्लास के बच्चे इस बात पर मेरा बहुत दिनों तक मज़ाक बनाते रहे. दूसरी तरफ मैंने हिंदी माध्यम के स्कूल में संस्कृत भाषा के पीरियड में अंग्रेजी का भरपूर इस्तेमाल किया था और मुझे सजा देने की बजाय मैडम जी मुझसे मदद मांग रही थी.
मैंने हामी भर दी. मैडम ने मुझे एक हरे रंग की फाइल थमाते हुए कहा कि "ये अपने पापा को दे देना और पूछना की क्या इस सिलसिले में हम उनसे मिल सकते हैं." वो फाइल बहुत पुरानी मालूम होती थी. ये कह पाना मुश्किल था कि उसमे रखे पन्ने कभी सफ़ेद होते होंगे. हर दूसरा पन्ना एक अर्ज़ी थी जिनपर हस्ताक्षरों और आधिकारिक सीलो की भरमार थी. चाय के कप के सतही निशाँ भी बहुत जगह देखे जा सकते थे. साफ़ था कि उस फाइल का सफर लम्बा था और वो बहुत से सरकारी महकमों में अपना सफर तय करके आयी थी. ऐसी बहुत सी फाइले अर्सो तक सरकारी दफ्तर में रहते हुए आखिर में दम तोड़ देती हैं. शायद सिर्फ शुक्ला मैडम की सकारात्मक ऊर्जा और उम्मीद से ही उसमे अभी तक जान बाकी थी.
खैर मैंने फाइल पापा को दी. पापा अचंभित थे की मैं पहले ही दिन क्या उठा लाया स्कूल से. मैंने सब बातें उनको बताई और मैडम से मुलाकात करने पर जोर भी दिया. फाइल के कुछ पन्ने पलटते ही वो समझ गए की इस सिलसिले में वो कुछ नहीं कर सकते थे.
उन्होंने मुझसे कहा" देखो इसमे मैं कुछ नहीं कर सकता। जिस जगह तुम्हारी शुक्ला मैडम रहती हैं, वहाँ कभी एक छोटी सी इंडस्ट्री हुआ करती थी. वह इंडस्ट्री बंद हो गयी और उसने 4 साल से भी लम्बे वक़्त का बिजली बिल जमा नहीं कराया. ऐसे में बिजली विभाग ने उस जगह का कनेक्शन काट दिया हैं. वहाँ नया कनेक्शन तब तक नहीं लग सकता जब तक 4 साल का बिजली बिल न भर दिया जाए. तुम्हारी मैडम यह नहीं भर पाएंगी क्यूंकि राशि बहुत ज्यादा हैं. पर मैं हैरान हूँ कि 5 साल से वो ऐसे घर में रहती हैं जहा बिजली नहीं हैं."
यह सुनकर मेरे भी होश उड़ गए. ये साफ़ था कि पापा इसमे कुछ ख़ास नहीं कर सकते थे पर मैं शुक्ला मैडम की उम्मीद को इतनी जल्दी तोडना नहीं चाहता था. मेरे जोर देने पर पापा उनसे मिलने के लिए मान गए. अगले दिन मैं ख़ुशी-ख़ुशी उनके पास पंहुचा और पापा की हामी को उनसे जाहिर किया. उनको देखकर लगा कि किसी ने उनको घर में बिजली आने की खबर दी हो.
हम भिवाड़ी में 3 साल और रहे. पापा के ज़रिये शुक्ला मैडम बिजली विभाग के आला अधिकारियों से मिलती रही. फाइल में कुछ और पन्ने आ गए थे पर बिजली नहीं आयी थी. पापा का ट्रांसफर हो गया. फिर हम चल दिए बोरिया बिस्तर समेटकर. फिर पीछे रह गया वो सरकारी मकान, पड़ौसी जो 3 सालो में बहुत ख़ास हो गए थे और प्यारी शुक्ला मैडम.
तकरीबन 10 साल बाद मैं अपनी पढ़ाई पूरी करके स्कूल के एलुमनाई मीट में गया. मेरी नज़रें शुक्ला मैडम को ढूंढ रही थी. फिर एकाएक वो दिखाई दी. वही मुस्कराहट और रौशनी से भूरा होने वाला चश्मा. मैंने उनके पैर छुए और आशीर्वाद लिया. मुझे पहचान तो नहीं पायी पर देखकर खुश थी. मैंने उनसे एकाएक पूछ डाला कि "मैडम आपके यहाँ बिजली आ गयी क्या?"
उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखा. उनके छलकते आंसू बता रहे थे कि चाहे बिजली न आयी हो पर उनकी उम्मीद और फाइल में जान अभी भी बाकी हैं.